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Monday, October 17, 2011

वह अनजान स्त्री - डॉ नूतन गैरोला

   
                       ghunghat


     आज भी याद आता है
    पोस्टमार्टम कक्ष में
    जब लायी गयी थी वो हमारे सामने
    बेहद खूबसूरत कमसिन थी
    पीली साड़ी उस पर चटख नारंगी फूल
    लावण्यता से भरपूर रूप खूब निखरता था|
     कोंटरास्ट की चोली
     शायद रंग नीला था ..
     माथे पर एक बड़ी लाल गोल बिंदी
     चमकता कुमकुम था|
     भरभर चूड़ी हाथ, मांग भर सिंदूर
     दमकता सुहाग उसका था ..
     पर जैसा दिखता था सबकुछ
     वैसा कुछ भी तो ना था ..
     बात बेहद दुखद थी 
     वह सिर्फ एक ठंडा जिस्म थी ..
     एक दरख़्त पर एक फंदे से  
     फांसी पर झूली थी  ..
     क्या सच था क्या झूठ था
     उसकी ख़ामोशी के संग सच भी निःशब्द था..
     एक चाक़ू बेरहम सा पर जरूरी 
     चीर गया था उसके जिस्म को कई कोनों से
     पेट, आतें, दिल, फेफड़े, गुर्दे, मांसपेशी, चमड़ी सब व्याख्या कर रहे थे     मौत के कारण  का 
      खूबसूरती के नीचे छुपा सत्य उसके उत्तकों के संग बाहर आ कर उघड़ गया था ..
      तब बोले थे ज्यूरिस के प्रोफ़ेसर देखो सच्चाई
      मौत फांसी से नहीं, मौत के बाद फांसी लगाई 
      हाथों की चमड़ी के नीचे जमे खून के थक्के थे
      हैवानों ने उसके हाथों को कितना कस के मरोड़ा था, देख हम हक्के बक्के थे|
      शायद मरने तक उस पर जकड़ा गया था शिकंजा
     और गालों के भीतर  होठो में छपे उसके स्वयं के दांतों के निशान
     बताते थे उसकी साँसों को उसकी आवाजों को जोरों से मुँह दबा के रोका था
     गले पे कसे गए शिकंजे के थे गहरे निशान
     उसकी उखडती साँस को
      बेरहमी से घोटा गया था ….
      महज उन पिशाचों की हवस के लिए
      उसने अपने परिवार अपने शरीर और आत्मा को खोया था और खोया था
      एक माँ ने बेटी, बच्चों ने अपनी माँ और पति ने अपनी चाँद सी पत्नी|
      उसकी आँखों के चमकते सितारों को
      सदा के लिए बुझा दिया गया था
      लाश को उसकी पेड़ पर फांसी पर झुला दिया गया था
      फिर एक नया मोड एक नयी कहानी 
      मौत के बाद भी एक इल्जाम उसके मत्थे मङ दिया गया था |
      कि जिन्दा रहने से वो घबराती थी
      बुजदिल थी वह
      इसलिए वह आत्मघाती बन सबसे नाता तोड़ गयी |

      डॉ नूतन गैरोला – १७- १० - २०११
            

 
   ये सच ही तो है और कितना भयानक सच… एक देह जिसके अरमान थे, जीवन अभी बचपन से उठ कर खिल रहा था - गाँव की वह विवाहित अति सुन्दर बाला की सुंदरता उसे किस कदर  हैवानों के आगे लील गयी… आज भी मुझे याद आता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं …. उसके जिस्म के टुकड़े होते हुवे देखे.. एम् बी बी एस के तृतीय वर्ष में उस दिन का अनुभव हमारे लिए नया था ..उस के बाद तो आम हो गया| 

                                         मोर्चुरी का पहला दिन



                 याद आने लगता है मुझे मेडिकल कॉलेज और एम्,बी.ब.एस कोर्स का तीसरा साल / दूसरा प्रोफेसनल … हमें १५ - २० बच्चों के ग्रुप में बाँट लिया जाता था - और स्थान – मोर्चुरी - जहाँ रहस्यमय मौत या सडन डेथ के कारणों का और मौत के समय का पता करने के लिए मरणोपरांत शवपरिक्षण (postmortem) किया जाता है| यह महिला सुन्दर पीली साड़ी में ऐसा लगता था जैसे अभी बोलती हो… बस जरा गले की ओर नजर ना पड़े तो| हम सब का दिल भर आया था| और उसकी बातें कर रहे थे वो हमारे लिए अनजान थी और मात्र एक शव थी जिस में हम जीवन के अंश ढूंढ रहे थे|
     
            दूसरा शव एक छोटे बच्चे का था उम्र लगभग ५ साल - बैलगाडी के पहिये के नीचे सर आ जाने से मौत हुवी थी||
    
             तीसरा शव दो हिस्सों में विभाजित दो टुकड़ों में, रेलवे क्रोसिंग पर यह शव मिला था|

        और चौथा शव - एक प्युट्रीफाइड लाश एक  पुरुष की - पेट  सडती हुवी गेस से  गुब्बारे की तरह फूल गया था - पेट के अंदर गेस का प्रेशर इतना ज्यादा था कि जीभ पूरी मुँह से बाहर निकल कर फूल गयी थी| सड़ी बदबू से बुरे हाल हो रहे थे| हम लोग वहाँ से भागना चाहते थे किन्तु टीचर का डर था| रेजिडेंट्स वहाँ खड़े थे सों बाहर की खुली हवा में जा नहीं सकते थे .. नाक पर रुमाल लिए थे| पेट उलट रहा था | कि दो आदमी बहुत बड़े चाक़ू ले कर आये एक ने उसके पेट पर उलटे चाकू से हल्का निशान लगाया ..ताकि इन्सिजन की लाइन को हम भी समझ सके..तब उसने पेट पर जैसे ही गहरा चाकू घुसाया,  पेट से ब्लास्ट करती हुवी सड़ी हवा पुरे वेग से बाहर छत पर टकराई और साथ में कीड़ों / मेगेट्स का फव्वारा खुल गया ..कीड़ों की बारिश सी होने लगी… सभी विद्यार्थी कमरे से बाहर भागे …किन्तु दरवाजे में रेजिडेंट टीचर बाहर से आ कर खड़े हो गए| हुक्मनामा हुवा ..अंदर जाओ -- मेरे सभी साथियों का चेहरा घृणा से लाल और शरीर बदबू से बेहाल हो रखा था … हम लोग कमरे में उल्टियां कर रहे थे और विशेषग्य लोग शव  से विसरा के सेम्पल कलेक्ट कर रहे थे --- कैसे थे वो दिन .. मुस्‍कान  
-- डॉ नूतन गैरोला १७ – १० – २०११    23:38

21 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दिल को दहला देने वाला सत्य ...

संस्मरण भी हम जैसों को भयावह ही लगेंगे ..

Atul Shrivastava said...

बहुत ही मार्मिक कविता।
अपने पेशे के दौरान ऐसी घटनाओं से अक्‍सर दो चार होना पडता है जिसमें दहेज के लोभ में नवविवाहिता को मार डाला गया हो या फिर किसी और कारण से हत्‍या कर दी गई हो....
आपकी रचना पढकर मन भर आया.....

बाद का विवरण भी मार्मिक ही है......
इन मृत शरीरों के परीक्षण के बाद ही चिकित्‍सक जिंदगी को बचाने के गुर सीखते हैं...
बेहतरीन प्रस्‍तुति......

Sunil Kumar said...

एक डाक्टर की सोंच को नमन ,समाज का सही चित्रण , संवेदनशील रचना आभार

Patali-The-Village said...

जिंदगी की सच्चाई को बयां करती मार्मिक रचना| धन्यवाद|

प्रवीण पाण्डेय said...

अत्यन्त मार्मिक।

रश्मि प्रभा... said...

dil dimaag sunn ho chala hai ... ek dr ka yah nazariya ! chehre se paar kuch dhoondhna her kisi ko nahin aata

वन्दना said...

उफ़ नूतन जी ये क्या प्रस्तुत कर दिया सोच कर ही रूह कांप रही है……………क्या कहूँ पढकर ही बुरा हाल हो गया है………………पता नही आप सबने कैसे सहा होगा और देखा होगा …………।

वर्ज्य नारी स्वर said...

संवेदनशील पोस्ट .

ajit gupta said...

सही है बहुत कठिन जीवन है।

रचना दीक्षित said...

डाक्टरों को ऐसे पलों को झेल पाना सख्त इंसान बनाने के लिये शायद जरुरी होता होगा. लेकिन ऐसे अनुभव कपां डालते है अंतरात्मा तक.

Pallavi said...

बहुत ही मार्मिक एवं संवेदनशील पोस्ट ....

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

ये चीर फाड तो बडे दिल-गुर्दे का काम है ॥

अनुपमा पाठक said...

सचमुच रोंगटे खड़े करने वाले अनुभवों को लिखा है!
संवेदनशील कविता!

रविकर said...

मार्मिक कविता ||

Neeraj Dwivedi said...

Mujhe shabd nahi mil rahe hain kuch kahne ko. Itna jarur kahunga ki aap me bahut himmat hai jo aap ye sab dekh sakti hain aur yahan varnit kar sakti.
Abhar.
My Blog: Life is Just a Life
My Blog: My Clicks
.

अजय कुमार झा said...

अदालती कार्य के दौरान ,पोस्टमार्टम करने वाले बहुत से चिकित्सकों से बातचीत में बहुत से अनुभव बिल्कुल ज़ुदा लगे ।एक बार फ़िर आपने अलग ही अनुभव साझा करके सोच में डाल दिया । कविता मार्मिक है , बेहद संवेदनशील

SURENDRA BAHADUR SINGH (JHANJHAT) said...

बहुत ही मार्मिक किन्तु सच्चाई से परिपूर्ण रचना
हम कब तक सभ्य बनने का नाटक करते रहेंगे , ऐसे अमानवीय कृत्यों के साथ ?

Babli said...

सच्चाई को आपने बड़े ही खूबसूरती से शब्दों में पिरोया है! बेहद ख़ूबसूरत एवं संवेदनशील रचना! बधाई!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

अशोक कुमार शुक्ला said...

Oh... Bahut hi jiwant chitran hai.
Post mortem kamre me pahunchane se oahle eak laaah ka vivran shyad is link me hai.

http://kavyasansaar.blogspot.com/2011/09/blog-post_7910.html?m=1

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

उफ़! ये सत्य का अनावरण....
जाने कैसी मनोदशा रही होगी कलमबद्ध करते वक्त....

सादर...

ऋता शेखर 'मधु' said...

संवेदनशील पोस्ट...